मेरी छोटी बुआ.
रक्षाबंधन का त्यौहार आते ही मुझे सबसे ज्यादा जमशेदपुर (झारखंड) वाली बुआ जी की राखी के कूरियर का इंतजार रहता था। वह हमेशा एक बड़ा पार्सल भेजती थीं जिसमें तरह-तरह के विदेशी चॉकलेट्स, गेम्स, मेरे लिए रंग-बिरंगे कपड़े, मम्मी के लिए साड़ी, और पापा के लिए कोई ब्रांडेड शर्ट होता था।
इस बार भी उन्होंने बहुत सारा सामान भेजा था। पटना और रामगढ़ वाली दोनों बुआ जी ने भी रंग-बिरंगी राखियों के साथ ढेर सारे गिफ्ट्स भेजे थे। लेकिन रोहतास वाली जया बुआ की राखी हमेशा की तरह साधारण से लिफाफे में आयी थी—पांच राखियाँ, कागज के टुकड़े में लपेटे हुए रोली-चावल, और पचास का एक नोट।
मम्मी ने सभी बुआ जी के पैकेट डाइनिंग टेबल पर रख दिए थे ताकि पापा ऑफिस से लौटकर अपनी बहनों की भेजी राखियाँ और तोहफे देख सकें। पापा रोज की तरह आते ही टी टेबल पर लंच बॉक्स का थैला और लैपटॉप की बैग रखकर सोफे पर पसर गए थे।
“चारों दीदी की राखियाँ आ गई हैं,” मम्मी ने किचन में पापा के लिए चाय बनाते हुए आवाज लगाई थी। पापा ने तुरंत जवाब दिया, “जया का लिफाफा दिखाओ जरा…”
जया बुआ की राखी का पापा सबसे ज्यादा इंतजार करते थे और सबसे पहले उन्हीं की भेजी राखी कलाई पर बाँधते थे। जया बुआ सभी भाई-बहनों में सबसे छोटी थीं, लेकिन विवाह के बाद से शायद उन्होंने कभी सुख नहीं देखा था। विवाह के तुरंत बाद देवर ने सारा व्यापार हड़प कर उन्हें घर से बेदखल कर दिया था। तब से फूफा जी की मानसिक हालत भी ठीक नहीं थी और वह मामूली सी नौकरी से थोड़ा बहुत कमाते थे।
जया बुआ मुश्किल से घर चलाती थीं। उनके इकलौते बेटे श्याम को भी मोहल्ले के साधारण से स्कूल में दाखिल कर रखा था। वह किसी तरह जी रही थीं, एक उम्मीद की डोर पकड़े हुए।
जया बुआ के भेजे लिफाफे को देखकर पापा कुछ सोचने लगे थे। फिर अचानक बोले, “गायत्री, इस बार रक्षाबंधन के दिन हम सब सुबह वाली पैसेंजर ट्रेन से जया के घर रोहतास जाएंगे, उसे बिना बताए।”
मम्मी तो पापा की बात सुनकर चौंक गई थीं। “आप जानते हैं कि उनके घर में कितनी तंगी है… हम तीन लोगों का नाश्ता-खाना भी जया दीदी के लिए भारी हो जाएगा। वह सब कैसे मैनेज करेंगी?”
लेकिन पापा की खामोशी बता रही थी कि उन्होंने जया बुआ के घर जाने का मन बना लिया है, और घर में सबको पता था कि पापा के निर्णय को बदलना बेहद मुश्किल होता है।
रक्षाबंधन के दिन सुबह वाली धनबाद टू डेहरी ऑन सोन पैसेंजर ट्रेन से हम सब रोहतास पहुँच गए थे। बुआ घर के बाहर बने बरामदे में लगी नल के नीचे कपड़े धो रही थीं। बुआ उम्र में सबसे छोटी थीं, पर तंगहाली और रोज की चिंता-फिक्र ने उन्हें सबसे उम्रदराज बना दिया था। उनकी पतली-दुबली और कमजोर काया, और चेहरे पर सिलवटें साफ दिख रही थीं।
हम सबको देखकर बुआ जी एकदम चौंक गई थीं। उन्हें समझ नहीं आ रहा था कि वह कैसे और क्या प्रतिक्रिया दें—अपने बिखरे बालों को संभालें या अस्त-व्यस्त घर को। उनके घर तो बरसों से कोई मेहमान नहीं आया था, वह जैसे भूल ही चुकी थीं कि मेहमानों को घर के अंदर कैसे बुलाया जाता है।
बुआ जी के बारे में सब बताते हैं कि बचपन से ही उन्हें साफ-सफाई और सजने-संवरने का बेहद शौक था। लेकिन आज दिख रहा था कि अभाव और चिंता कैसे इंसान को अंदर से दीमक की तरह खा जाते हैं। अक्सर उन्हें छोटी-मोटी जरूरतों के लिए दूसरों के सामने हाथ फैलाना पड़ता था, और ज्यादातर रिश्तेदार उनका फोन उठाना भी बंद कर चुके थे।
सिर्फ पापा ही थे जो अपनी सीमित तनख्वाह के बावजूद कुछ न कुछ बुआ को दिया करते थे। पापा ने आगे बढ़कर सहमी सी अपनी बहन को गले से लगा लिया था। “भैया-भाभी, मन्नू, तुम सब अचानक आज… सब ठीक है न?” बुआ ने कांपती सी आवाज में पूछा।
“आज वर्षों बाद मन हुआ कि राखी में तुम्हारे घर आने का… तो बस आ गए हम सब…” पापा ने बुआ को सहज करते हुए कहा।
“भाभी, आओ न अंदर… मैं चाय-नाश्ता लेकर आती हूं,” जया बुआ ने मम्मी के हाथों को अपनी ठंडी हथेलियों में लेते हुए कहा।
“जया, तुम बस बैठो मेरे पास। चाय-नाश्ता गायत्री देख लेगी,” पापा ने कहा। हमलोग बुआ जी के घर जाते समय रास्ते में रुककर बहुत सारी मिठाइयाँ और नमकीन ले आए थे। मम्मी किचन में जाकर सबके लिए प्लेट लगाने लगीं, और बुआ अपने भैया के पास बैठ गईं।
बुआ जी का बेटा श्याम दौड़कर फूफा जी को बुला लाया। राखी बांधने का मुहूर्त शाम सात बजे तक का था। मम्मी अपनी ननद को लेकर मॉल चली गईं, सबके लिए नए ड्रेसेस खरीदने और बुआ जी के घर के लिए किराने का सामान लेने के लिए।
शाम होते-होते पूरे घर का हुलिया बदल गया था—नए पर्दे, बिस्तर पर नई चादर, रंग-बिरंगे डोर मैट, और सारा परिवार नए कपड़े पहनकर जंच रहा था। न जाने कितने सालों बाद आज जया बुआ की रसोई का भंडार घर लबालब भरा हुआ था। धीरे-धीरे आत्मविश्वास लौटता दिख रहा था बुआ के चेहरे पर, लेकिन सच तो यह था कि उन्हें अभी भी सब कुछ स्वप्न सा लग रहा था।
जया बुआ ने थाली में राखियाँ सजा ली थीं, मिठाई का डिब्बा रख लिया था। जैसे ही पापा को तिलक करने लगीं, पापा ने बुआ को रुकने को कहा। सभी आश्चर्यचकित थे।
“दस मिनट रुको, तुम्हारी दूसरी बहनें भी बस पहुँचने वाली हैं,” पापा ने मुस्कुराते हुए कहा। तभी बाहर दरवाजे पर गाड़ियों के हॉर्न की आवाज सुनकर बुआ, मम्मी, और फूफा जी दौड़ कर बाहर आए, तो तीनों बुआ का पूरा परिवार सामने था। जया बुआ का घर मेहमानों से खचाखच भर गया था।
पापा ने सबको चार धाम की यात्रा पर जाने का सुझाव दिया था, लेकिन सबसे पहले वह जया बुआ के घर आए। पापा के इस फैसले पर सभी बुआ सहमत थीं, और सबने मिलकर बुआ की सहायता करने का निर्णय लिया था। जया बुआ के लिए यह किसी सपने जैसा था। सारी बहनों से मिलते-मिलाते बुआ जी के आँसू बहते जा रहे थे। सबने पापा को राखी बांधी, और ऐसा रक्षाबंधन शायद पहली बार ही था सबके लिए।
रात को हम सबने एक बड़े रेस्तरां में डिनर किया। फिर बातों-बातों में कब काफी रात हो चुकी थी, पता ही नहीं चला। अभी भी जया बुआ ज्यादा नहीं बोल रही थीं, बस बीच-बीच में छलकते आँसू पोंछ लेती थीं।
बीच आंगन में ही सब चादर बिछाकर लेट गए थे। जया बुआ पापा से किसी छोटी बच्ची की तरह चिपकी हुई थीं, मानो इस प्यार और दुलार का उन्हें वर्षों से इंतजार था। बातें करते-करते अचानक पापा को बुआ का शरीर एकदम ठंडा सा लगा, तो पापा घबरा गए। सारे लोग जाग गए, लेकिन जया बुआ हमेशा के लिए सो चुकी थीं।
पापा की गोद में एक बच्ची की तरह लेटे-लेटे वह विदा हो चुकी थीं। पता नहीं कितने दिनों से बीमार थीं और आज तक किसी से नहीं कहा था। आज सबसे मिलने की ही आशा लिए जिन्दा थीं शायद…!