एक दिन जब मेरे पति के साथ हुई तीखी बहस से मेरा मन पूरी तरह टूट गया, तो मैंने सारी बातें अपने भाई को बता दीं। भाई ने मुझे बहुत समझाया और फिर कहा, “दीदी, ऐसा करो, कुछ दिनों के लिए हमारे घर आ जाओ। तुम दोनों अगर कुछ वक्त एक-दूसरे से दूर रहोगे, तो शायद तुम्हें एक-दूसरे की अहमियत का एहसास होगा।”
मैंने भाई की सलाह मानी और कुछ दिनों के लिए पति का घर छोड़कर भाई के घर आ गई। मेरा भाई बहुत ही प्यारा है, मुझे बेहद मानता है, और उसकी पत्नी, मेरी भाभी, भी मेरे साथ अच्छे से पेश आती थी। लेकिन कहते हैं न, चाहे भाई कितना भी अच्छा हो, लेकिन जब बात घर की बहू यानी भाभी की होती है, तो उसका घर चलाने का तरीका, उसकी मर्जी ही सबसे ऊपर होती है। और अगर उस मर्जी में किसी और की दखलंदाजी महसूस हो, तो घर का माहौल खराब होने में देर नहीं लगती।
शुरुआत में सब ठीक था, लेकिन कुछ ही दिनों बाद भाभी के व्यवहार में बदलाव आने लगा। उसे शायद डर सताने लगा था कि कहीं मैं हमेशा के लिए मायके में ही न रह जाऊं। धीरे-धीरे उसने मुझे तानों में लपेटकर बातें कहनी शुरू कर दीं।
“देखो, जो लड़कियां अपना घर छोड़ देती हैं, उनका कोई घर नहीं होता। ना घर की रहती हैं, ना घाट की।”
भाभी की बातों के इसारे अब मैं साफ़-साफ़ समझने लगी थी। मैंने महसूस किया कि अब यह घर, जो कभी मेरा अपना मायका था, अब भाभी का घर बन गया है। मेरे लिए यहाँ अब वह अपनापन नहीं रहा, जो पहले महसूस होता था।
इधर, मेरे पति को भी मेरी कमी खलने लगी। उन्होंने महसूस किया कि घर की खालीपन को सिर्फ मेरे साथ से ही भरा जा सकता है। वे मुझे लेने के लिए आए और जब मैंने उन्हें देखा, तो खुद को रोक नहीं पाई और उनसे लिपटकर रो पड़ी। मेरे आंसू पोछते हुए उन्होंने कहा, “चलो, घर चलते हैं।”
उस दिन मैंने महसूस किया कि घर से दूर जाने से एक सच्चाई उजागर होती है, जिसे हम अक्सर नजरअंदाज कर देते हैं। मैं भाई के घर से वापस अपने ससुराल आ गई, लेकिन रास्ते भर एक ही बात सोचती रही कि, “जब तक घर में माँ होती है, तब तक मायका अपना घर लगता है। माँ के जाने के बाद, वह घर भाभी का घर बन जाता है।”
शायद तभी कहते हैं, “मायका माँ से होता है…”