पति ने पूछा, “क्यों?”
पत्नी ने कहा, “हमारी कामवाली बाई दो दिन के लिए काम पर नहीं आएगी।”
पति ने फिर पूछा, “क्यों?”
पत्नी बोली, “वह अपने नाती से मिलने बेटी के घर जा रही है।”
पति ने कहा, “ठीक है, मैं अधिक कपड़े नहीं निकालूंगा। और हाँ, त्यौहार आ रहा है, उसे ₹500 बोनस में दे देना।”
पति ने पूछा, “क्यों? जब त्यौहार आए तब देखेंगे।”
पत्नी ने जवाब दिया, “अच्छा लगेगा और इस महंगाई के दौर में वह इतनी सी पगार से त्यौहार कैसे मनाएगी, बेचारी।”
पति बोला, “तुम भी ना, नाम हो जाती हो।”
पत्नी ने कहा, “मैं आज का पिज़्ज़ा खाने का कार्यक्रम रद्द कर देती हूं। लोगों के पीछे ₹500 उड़ जाएंगे।”
पति बोला, “क्या कहने आपके! मेरे मुंह से पिज़्ज़ा छीनकर बाई की थाली में डाल दिए।”
तीन दिन बाद, पोछा लगाते हुए कामवाली बाई से पति ने पूछा, “कैसी रहीं तुम्हारी छुट्टियां?”
बाई ने जवाब दिया, “बहुत बढ़िया रहीं साहब। दीदी ने मुझे त्यौहार के बोनस के रूप में ₹500 जो दे दिए थे।”
पति ने फिर पूछा, “तो हो आई तुम अपनी बेटी के यहाँ, मिलाई अपने नाती से?”
बाई ने कहा, “हाँ साहब, बहुत मजा आया। 2 दिन में ₹500 खर्च कर दिए। ₹25 की चूड़ियां बेटी के लिए, ₹50 की चूड़ियां समधन के लिए, और जमाई के लिए ₹50 का अच्छा वाला पेन लिया। बाकी पैसे कॉपी पेंसिल खरीदने में खर्च हुए।”
झाडू पोछा करते हुए पूरा हिसाब उसकी जुबान पर रटा हुआ था। पति ने मन ही मन विचार किया और उसकी आंखों के सामने आठ टुकड़े किया हुआ बड़ा सा पिज़्ज़ा घूमने लगा। एक-एक टुकड़ा उसके दिमाग में हथोड़े मारने लगा।
अपने एक पिज़्ज़ा के खर्च की तुलना वह कमवाली बाई के त्यौहार से करने लगा। पहला टुकड़ा बच्चे की ड्रेस का, दूसरा टुकड़ा पेड़े का, तीसरा टुकड़ा समधन की चूड़ियों का, चौथा किराए का, और पाँचवा गुड़िया का।
पति ने सोचा, उसने पिज़्ज़ा को कभी पलट कर नहीं देखा था कि पिज़्ज़ा पीछे से कैसा दिखता है। लेकिन आज कामवाली बाई ने उसे पिज़्ज़ा की दूसरी बाजू भी दिखा दी। आज पिज़्ज़ा के वो आठ टुकड़े उसे जीवन का अर्थ समझा गए। जीवन के लिए खर्च या खर्च के लिए जीवन – एक नवीन अर्थ, एक झटके में उसे समझ में आ गया था।