मेरी कहानी एक ऐसे अच्छे व्यक्ति की बर्बादी का बयान है, जिसने अपनी पूरी जिंदगी दूसरों की भलाई में बिता दी, लेकिन अंत में सिर्फ दर्द और अकेलापन पाया। मैं 46 साल की अविवाहित महिला हूं, और यह कहानी मेरे पिताजी की है, जो अपने परिवार की भलाई के लिए हर संघर्ष से गुजरते रहे, लेकिन खुद के लिए कुछ भी हासिल नहीं कर सके।
मेरे पिताजी, विनोद, एक सरल और दिल के बेहद अच्छे इंसान थे। मेरे दादा जी ने दो शादियां की थीं। उनके पहले बेटे, यानी मेरे पिताजी, पढ़ाई-लिखाई में होशियार थे और सरकारी अफसर बन गए। वहीं, उनके सौतेले भाई रघु, पढ़ाई से दूर, गांव में ही रहते थे। जब पापा सरकारी नौकरी में गए, तो रघु चाचा को यह नागवार गुजरा। उन्होंने घर में हंगामा मचा दिया कि एक बेटे को पढ़ा-लिखा कर अफसर बना दिया और दूसरे को अनपढ़ छोड़ दिया।
रघु चाचा के इस हंगामे का असर शायद पापा पर पड़ा, और उन्होंने चाचा की जिंदगी को सुधारने का बीड़ा उठा लिया। पापा ने अपनी कमाई का बड़ा हिस्सा चाचा के परिवार पर खर्च करना शुरू कर दिया। चाहे चाचा की बेटी की शादी हो, चुनाव लड़ने की योजना हो, या किसी बीमारी का इलाज—हर बार पापा ही उनकी मदद के लिए आगे आते रहे। पापा ने अपनी जमीन तक छोड़ दी, और अपनी मेहनत की कमाई से खरीदी जमीन में भी चाचा का नाम जोड़ दिया।
समय के साथ दादा-दादी का निधन हो गया। पापा ने रघु चाचा के लिए अपने हिस्से की संपत्ति भी छोड़ दी, और खुद अपने परिवार को छोड़कर चाचा की मदद में जुट गए। पापा की इस दरियादिली का बुरा असर हमारे परिवार पर पड़ा। मां को पापा का यह त्याग कभी समझ नहीं आया। वह पापा से नाराज रहने लगीं और घर में कलह का माहौल बन गया।
हम तीन बहनें और एक भाई थे। बड़ी बहन, अनुष्का, सांवली और साधारण शक्ल की थी, जिसकी शादी बड़ी मुश्किल से 42 साल की उम्र में हुई। लेकिन वह शादी भी टिक नहीं पाई, और अनुष्का ससुराल से मायके लौट आई। दूसरी बहन, मेघा, मानसिक रूप से बीमार हो गई, और अब उसकी देखभाल भी मेरे जिम्मे आ गई। मैं, रिया, तीसरे नंबर की बहन हूं, और हमारा एक छोटा भाई, आदित्य है।
पापा ने 23 साल तक सरकारी नौकरी की, और अब उनकी पेंशन से ही घर का खर्च चलता है। रिटायरमेंट के बाद पापा की तबीयत बिगड़ने लगी। उनकी कमर की सर्जरी हुई, और अब वे चलने-फिरने से भी लाचार हो गए हैं। इस स्थिति का फायदा उठाते हुए मां और भाई ने पापा की पेंशन और उनकी संपत्ति पर कब्जा जमाना शुरू कर दिया। पापा की देखभाल का जिम्मा अब पूरी तरह से मुझ पर है, लेकिन मां और भाई को पापा की कोई परवाह नहीं। उनके लिए बस पेंशन और खेत से आने वाला अनाज ही मायने रखता है, जिसे वे अपने खाते में ट्रांसफर कराते रहते हैं।
मां और आदित्य की रसोई भी अलग बनती है। वे जब चाहें सब्जी लाकर दे देते हैं, नहीं तो हम बहनों और पापा को दाल-चावल पर ही गुजारा करना पड़ता है। घर में गाली-गलौज का माहौल हमेशा बना रहता है, और मैं अपने बीमार पिता और मानसिक रूप से कमजोर बहन की देखभाल में दिन-रात लगी रहती हूं।
मैंने कई बार मां से कहा कि पापा को टॉर्चर मत करो, चाचा से जाकर लड़ो, जिन्होंने हमारे पापा का इस्तेमाल किया। लेकिन मां ने मुझे और पापा को ही दोषी ठहराया और हमें ही टॉर्चर करती रही। मैं 46 साल की हो चुकी हूं, और इस घर में दम घुटता है। लेकिन पापा को छोड़कर जाने की हिम्मत नहीं होती। उन्हें मां और आदित्य के भरोसे छोड़ना मेरे लिए असंभव है।
पापा ने अपनी सारी जिंदगी अपने सौतेले भाई के लिए कुर्बान कर दी, और अब उन्हें कोई सहारा नहीं है। जब मैं इस सबके बारे में सोचती हूं, तो मेरा दिल भर आता है। पापा ने कभी ‘ना’ कहना नहीं सीखा, और आज हम सभी उनकी उस दरियादिली की सजा भुगत रहे हैं।
पापा के इस त्याग ने हमारी जिंदगी को बर्बाद कर दिया, और मैं इस बर्बादी का सामना कैसे करूं, यह सवाल हमेशा मुझे सताता रहता है।
निष्कर्ष:
मेरे पापा की अच्छाई ने उन्हें और हमें इस दर्दनाक स्थिति में ला खड़ा किया। चाचा ने उनके त्याग का नाजायज फायदा उठाया, और अब उनके अपने परिवार ने भी उनसे मुंह मोड़ लिया है। यह कहानी एक सबक है कि जरूरत से ज्यादा भलाई और त्याग कभी-कभी अपनों के लिए भी अभिशाप बन सकता है। हमें हमेशा संतुलन बनाए रखना चाहिए, ताकि हमारे अपने जीवन में भी खुशियां बनी रहें।