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Mother's Box: A Story of Service to the Family or Selfishness?
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माँ का संदूक: परिवार की सेवा या स्वार्थ की कहानी?

सुधा देवी 75 साल की हो गई हैं। सुधा देवी के तीन बेटे हैं। सुधा जी के पति का देहांत तब हो गया था जब वह 55 वर्ष की थीं। सुधा जी एक छोटे से पुराने घर में रहती हैं, जिसे उनके पति ने बनवाया था।

तीनों बेटे उनके साथ तो नहीं रहते, लेकिन ऐसा एक भी दिन नहीं गुजरता जब वे उनसे मिलने या उनकी सेवा करने न आते हों। उनके घर पर हमेशा कोई न कोई उनके सेवा-चाकरी में लगा ही रहता है।

तीनों बेटों ने अलग-अलग अपना घर बना रखा है। सबकी अपनी पर्सनल लाइफ भी है और परेशानियाँ भी हैं। आदमी चाहे कितना भी बड़ा हो, उसकी परेशानियाँ कम नहीं होतीं। अमीर से अमीर व्यक्ति को भी यह चिंता रहती है कि वह अमीर कैसे बना रहे।

तीनों बेटों ने कई बार जिद भी की कि माँ उनके साथ जाकर वहां रहें। लेकिन सुधा जी ने कहा कि वे यहीं रहेंगी। उसी घर में उन्हें कहीं और चैन नहीं आता।

आप ऐसा बिल्कुल मत सोचिए कि ये तीनों बेटे बड़े सुपुत्र हैं। उनके अपनी माँ के प्रति लगाव की असली वजह कुछ और है।

वजह है उनकी माँ का एक बड़ा संदूक। एक बड़ा लकड़ी का संदूक जिस पर ताला लगा है। यह संदूक उनके जीवन में बहुत अहम भूमिका निभाता है।

इस संदूक के अंदर क्या है और कितना है, ना तो इन तीनों बेटों को पता है, न ही उनकी पत्नियों को। बस, जब से उनके पिता जी का निधन हुआ है, माँ को इस संदूक की रक्षा करते देखा है।

इसलिए इन सभी ने अपने-अपने अनुमान लगा रखे हैं। सभी ने इस संदूक के खुलने का इंतजार किया है, जिससे वे अपने-अपने सपनों को पूरा कर सकें।

सुधा जी उस संदूक को छोड़कर कभी नहीं जातीं। जब कभी जाती भी हैं, तो अपने कमरे में बड़ा ताला लगाकर ही बाहर निकलती हैं और जल्दी ही वापस आ जाती हैं।

तीनों भाइयों और उनकी पत्नियों की निगाहें इस संदूक पर हमेशा रहती हैं। सबने अपनी-अपनी कोशिशें की हैं कि माँ को अपने साथ अपने घर ले जाएँ, ताकि संदूक भी वहां आ सके। लेकिन सभी एक-दूसरे की काट करते हैं।

इसका लाभ यह हुआ कि माँ के आगे-पीछे, माँ जी-माँ जी करते हुए बेटे और बहुएँ चक्कर लगाते रहते हैं। लेकिन सुधा जी भी भली-भांति अपने बेटों को समझती हैं। उन्हें पता है कि उनकी इतनी सेवा क्यों हो रही है।

उनकी सेवा इस संदूक के कारण हो रही है। उन्हें पता है कि जिस दिन यह संदूक इन लोगों के हाथ आया, उस दिन इसका मूल्य कुछ भी न रह जायेगा।

तीनों भाइयों और उनकी पत्नियों में यह बात चलती है कि माँ के पास ना सिर्फ सोना है, बल्कि उनका जीवन भी इसी संदूक में है। माँ इसलिए इस संदूक की इतनी रक्षा करती हैं।

सभी अपनी-अपनी कहानियाँ बना चुके हैं। किसी का दावा है कि उसने संदूक को एक बार उठाकर देखा है, वो बहुत भारी है। माँ के कमरे में बहुओं ने कई बार सफाई के बहाने संदूक के पास जाने की कोशिश की, लेकिन माँ ने उन्हें बार-बार टोका और कहा कि संदूक से दूर रहो।

समय आने पर संदूक में क्या है, तुम्हें अपने आप पता चल जायेगा। आखिर माँ की बात कौन टालता है? और वो भी अभी कोई नहीं टाल सकता।

बस उस समय के इंतजार में ये सब माँ के अच्छे बेटे और बहुएं बनने की कोशिश कर रहे हैं। रात में कोई न कोई माँ के घर में जरूर रुकता है, लेकिन माँ जी उसे अपने कमरे में सोने नहीं देती थीं। इस तरह सुधा जी ने इस संदूक के सहारे 20 साल निकाल दिए।

एक दिन माँ की तबियत खराब हो गई। अक्सर जब तबियत बिगड़ जाती थी, तब उनके बेटे उन्हें अस्पताल ले जाने की बात करते थे। लेकिन वह इसके लिए भी राजी नहीं होतीं। वह कहतीं कि डॉक्टर को यहीं बुलवा लें। उनके बेटे ऐसा ही करते थे।

इस बार जब उनकी तबियत खराब हुई, तो डॉक्टर ने कहा कि उन्हें अस्पताल में भर्ती करना पड़ेगा, वरना उनकी हालत खराब हो सकती है। और फिर उम्र भी बढ़ रही है, आखिर कब तक यह शरीर साथ देगा। डॉक्टर की यह सलाह सुनकर तीनों भाइयों के चेहरे पर दुःख से ज्यादा उत्साह दिखाई दिया। उनकी पत्नियों की आँखों की चमक साफ दिखाई दे रही थी।

तीनों इस बात पर चर्चा कर रहे थे कि माँ के जाने के बाद संदूक में जो भी है, उसे आपस में बांटा जायेगा और सबको बराबर मिलेगा।

सुधा जी ने जब यह सुना, तो उन्हें अंदाजा लग गया कि अब समय आ गया है कि इन सबको यह बताने का कि आखिर इस संदूक में क्या है।

उन्होंने आवाज लगाकर अपने तीनों बेटों और बहुओं को अंदर बुलाया। सबने आते ही कहा, “माँ, अस्पताल चलते हैं। आप वहाँ जाकर ठीक होंगी।”

माँ ने कहा, “पहले तुम जान लो कि जिसके लिए तुम सब इतने सालों से चक्कर लगा रहे हो। इसके बाद तुम्हारी मर्जी।”

सुधा जी ने अपने तकिये के नीचे से एक चाबी निकाली और धीरे से खड़ी होकर संदूक खोलने के लिए झुकी। वहाँ खड़े सभी बेटे और बहुएं धड़कन के साथ संदूक की ओर देख रहे थे। आज उनके वर्षों का इंतजार समाप्त होने वाला था। माँ ने संदूक खोला। संदूक में तीन अलग-अलग कपड़ों में लपेटकर कुछ रखा हुआ था।

सबकी आंखें बड़ी आश्चर्य से संदूक की ओर थीं। माँ ने कपड़े में लिपटा हुआ सामान उठाने को कहा।

तीनों बेटों ने एक-एक सामान उठाया और उसे खोला। कपड़ा खुलते ही कमरे में मौजूद हर एक इंसान का मुँह फटा का फटा रह गया। कपड़ों में से निकला एक भारी पत्थर। तीनों के हाथों में एक-एक पत्थर था।

“यह क्या माँ, इतने दिनों से तुम इन पत्थरों को संभालकर रखी हुई थीं? और हमें बेवकूफ बना रही थीं?” तीनों बेटे चिल्लाए।

माँ ने कहा, “मैंने तुम्हें कब बेवकूफ बनाया? और गहने तो थे, लेकिन कब किसके लिए कितने बेचे, इसका मैंने हिसाब नहीं रखा।”

“जब तुम्हारे पिता आखिरी समय में थे, तब हमारे पास कुछ नहीं था। तुम तीनों ने शादी के बाद मुँह मोड़ लिया। क्या तुम्हें पता है कि किस अभाव में उनका अंतिम समय गुजरा? लेकिन उन्होंने तुम्हें कुछ नहीं कहा। उन्होंने उस समय भी मेरा सोचा। उन्हें पता था कि उनके जाने के बाद उनके बेटे मेरे साथ भी यही करेंगे। इसलिए उन्होंने मेरे लिए इस संदूक का उपाय खोजा। देखो, कितना सही उपाय दिया था। तुम लोगों को बेवकूफ बनाना या तुम लोगों से सेवा करना उनका मकसद था, न मेरा।”

“वो तो चाहते थे कि उनके जाने के बाद मैं अकेली न रहूँ। बेटे मेरे साथ हों, मेरी आँखों के सामने, बस यही इच्छा थी। अब मैं शायद ज्यादा न रहूँ, इसलिए मैंने तुम्हें सच बता दिया।”

सभी बेटे और बहुएँ अब कमरे से बड़बड़ाते हुए और गुस्से से बाहर निकले। करीब 1 घंटे तक माँ के कमरे के बाहर ही सब एक-दूसरे पर अपना गुस्सा निकालते रहे। बहस हो रही थी कि अब माँ को अस्पताल ले जाना है या नहीं, और ले जाया जाएगा तो खर्चा कौन उठाएगा। माँ जी अपने बिस्तर पर लेटी हुई सब सुन रही थीं।

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