वलसाड जिले के आदिवासी इलाकों में कम उम्र में बच्चियों के मां बनने के मामले ने सभी को चौंका दिया है। सरकारी रिकॉर्ड के मुताबिक, अप्रैल 2024 से नवंबर 2024 तक 12 से 18 साल की 2,175 नाबालिग बच्चियां मां बन चुकी हैं। इनमें से 907 डिलीवरी केवल कपराडा तालुका में हुईं, जिनमें दो 12 साल की बच्चियां भी शामिल हैं। यह स्थिति न केवल बाल विवाह पर सरकारी नियंत्रण के खोखले दावों की पोल खोलती है, बल्कि प्रशासनिक तंत्र की गंभीर विफलता को भी उजागर करती है।
कम उम्र में गर्भधारण का भयावह सच
वलसाड जिले के दुर्गम आदिवासी क्षेत्रों, विशेषकर कपराडा तालुका में नाबालिग लड़के-लड़कियों के साथ रहने और बाद में शादी करने की परंपरा वर्षों से चली आ रही है। इसी सामाजिक व्यवस्था का नतीजा है कि कम उम्र में बच्चियां गर्भवती हो जाती हैं। स्वास्थ्य विभाग के आंकड़ों के अनुसार, पिछले 9 महीनों में जिले की 12 से 18 साल की 2,175 लड़कियां मां बनीं। इनमें से 12 साल की दो बच्चियां और 17 साल की दो बच्चियों की डिलीवरी के दौरान मौत हो गई।
तालुका वार आंकड़े
तालुका | डिलीवरी की संख्या |
---|---|
कपराडा | 964 |
धरमपुर | 400 |
उमरगाम | 302 |
वापी | 317 |
वलसाड | 123 |
पारदी | 69 |
स्वास्थ्य पर गंभीर प्रभाव
विशेषज्ञों का कहना है कि कम उम्र में मां बनने वाली बच्चियों को कई गंभीर समस्याओं का सामना करना पड़ता है।
- शारीरिक खतरे: रक्तचाप बढ़ने और खून की कमी के कारण जच्चा-बच्चा दोनों की जान को खतरा रहता है।
- मानसिक समस्याएं: कम उम्र में प्रसव के बाद बच्चियों में डिप्रेशन और मानसिक अस्थिरता के मामले बढ़ते हैं।
- शिक्षा पर असर: मां बनने के कारण इन बच्चियों को पढ़ाई छोड़नी पड़ती है, जिससे उनका भविष्य अंधकारमय हो जाता है।
सरकारी प्रयास नाकाफी
गुजरात सरकार ने बाल विवाह और कम उम्र में गर्भधारण रोकने के लिए जागरूकता अभियान चलाए हैं, लेकिन वलसाड जैसे आदिवासी क्षेत्रों में ये कार्यक्रम असफल साबित हो रहे हैं। सामूहिक विवाह की परंपरा और सालों से चली आ रही सामाजिक कुरीतियां सरकार की कोशिशों को नाकाम कर रही हैं।
पुलिस कार्रवाई में कमी
पहले नाबालिग बच्चियों की डिलीवरी के मामलों में पुलिस को सूचना दी जाती थी, लेकिन अब बढ़ती संख्या और स्वास्थ्य विभाग के सॉफ्टवेयर की सीमाओं के कारण इन मामलों की सूचना नहीं दी जा रही।
सवाल जो खड़े होते हैं
- क्या प्रशासन इन घटनाओं पर गंभीरता से कदम उठाएगा?
- क्या नाबालिग बच्चियों के स्वास्थ्य और शिक्षा के अधिकार की रक्षा की जाएगी?
- क्या पुलिस और कानून व्यवस्था इन मामलों को रोकने में सक्षम हो पाएगी?
यह भयावह स्थिति न केवल आदिवासी समाज की कुरीतियों को उजागर करती है, बल्कि प्रशासनिक उदासीनता और सरकारी योजनाओं की असफलता का भी प्रमाण है। समय रहते कदम नहीं उठाए गए, तो यह समस्या और विकराल रूप ले सकती है।