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उम्र की इस दहलीज़ पर: एक माँ की दर्द भरी यात्रा
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उम्र की इस दहलीज़ पर: एक माँ की दर्द भरी यात्रा

पति के देहांत के बाद मेरी जिंदगी बिल्कुल बदल गई थी। मेरा नाम सविता है, और अब मैं अपने इकलौते बेटे राहुल और उसकी पत्नी काव्या के साथ रहती थी। जिंदगी की अनगिनत उम्मीदों और संघर्षों के बीच, मैं बस यह चाहती थी कि बुढ़ापे में मेरे बच्चे मेरा सहारा बनें। परंतु मेरे लिए वक्त ने कुछ और ही योजना बना रखी थी।
शुरू में तो सब ठीक था, लेकिन धीरे-धीरे मुझे अपने बेटे और बहू के असली इरादे समझ आने लगे। उनकी बातों और व्यवहार से साफ था कि वे चाहते थे कि मैं घर छोड़कर वृद्धाश्रम चली जाऊं। मैंने कभी सोचा भी नहीं था कि मुझे अपने ही घर में इस तरह का माहौल देखना और सहना पड़ेगा।
राहुल ने घर के बाहर मेरे लिए एक टिन की छत वाला छोटा सा कमरा बनवा दिया था, जिसमें मैं रहती थी। बहू को कोई तकलीफ न हो, इसलिए मैंने खुद को घर के बाहर उस छोटे से कमरे में सीमित कर लिया। वो जगह मेरे लिए कोई महल नहीं थी, लेकिन अपने पोते और पोती की एक झलक देखने से मुझे सुकून मिलता था। उनकी हंसी और मासूमियत मेरे बुझे दिल को थोड़ी राहत देती थी।
राहुल कभी-कभी मेरे लिए राशन दे जाता, जिसे मैं धीरे-धीरे बनाकर खा लेती थी। मैं जानती थी कि मैं बोझ बन चुकी हूं, लेकिन फिर भी मैंने अपने बेटे से सिर्फ एक ही अनुरोध किया था—”मुझे यहीं मर जाने दो, बस यही मेरा आखिरी घर रहे।”
एक दिन मेरे पति के पुराने दोस्त शर्माजी आए। उनका भी हाल मेरे जैसा ही था—पैरों में तकलीफ थी, चलते-फिरते मुश्किल होती थी, और उनके अपने बच्चे उनसे परेशान हो चुके थे। वे मेरे पास आकर अपने दिल का हाल सुनाने लगे, और मैंने उनके लिए खाना बनाया। वह भी शायद भूखे थे, क्योंकि उन्होंने मना करते हुए भी खाना खा लिया। मैंने सोचा, इसमें क्या गलत है? आखिर वो मेरे पति के पुराने दोस्त हैं।
लेकिन बहू ने हमें खाना खाते हुए देख लिया। उस दिन तो कुछ नहीं कहा, लेकिन जब राहुल घर आया, तो काव्या ने उसकी कान भरने शुरू कर दिए—”तुम्हारी माँ को अब कोई शर्म नहीं रही। पता नहीं किस-किस को घर बुलाकर खाना खिला रही हैं। घर का राशन लुटा रही हैं।”
राहुल ने भी बहू की बातें सुनी और मुझसे बोला, “माँ, कुछ दिनों के लिए खाना बंद कर देता हूँ। शायद भूखी रहोगी तो समझ आ जाएगा।” यह सुनकर मेरी आंखों में आंसू थे, लेकिन मैं कुछ कह नहीं पाई। मुझे घर के पीछे सीढ़ियों के पास बिठा दिया गया, और अगले दिन मेरा छोटा सा टिन का कमरा भी बहू ने तोड़वा दिया।
उस दिन मुझे लगा कि अब मैं गलत कर रही हूं। शायद मेरे बेटे के घर में मेरी जगह नहीं रही। मैंने राहुल से कहा, “बेटा, अब मुझे वृद्धाश्रम छोड़ आ। मैं तुम्हें और काव्या को अब और परेशान नहीं करना चाहती।” मेरी बहू खुश थी, बोली, “देखा, एक दिन भूखी रही तो अक्ल ठिकाने आ गई।” और राहुल… उसके चेहरे पर अजीब सी राहत थी। वह जल्दी से तैयार हो गया मुझे छोड़ने के लिए।
मैंने अपनी बहू से कहा, “बेटी, चिंता मत करो। अब मैं कभी लौटकर नहीं आऊंगी।” फिर मैंने अपने पोते-पोती को गले से लगाया, और आंसुओं में डूबे मन से सोचा कि अब शायद मैं उन्हें फिर कभी न देख पाऊं। राहुल को भी जी भर कर गले लगाना चाहती थी, लेकिन वह जल्दी मचा रहा था, “माँ, चलो अब, देरी मत करो।” मेरी आंखों से आंसू बह रहे थे, लेकिन मैंने किसी तरह अपने दिल को संभाल लिया।
वृद्धाश्रम पहुंचकर मैंने देखा, वहाँ मेरी तरह और भी बहुत से लोग थे। हर किसी की कहानी मेरी ही तरह दर्द भरी थी। कुछ दिन उदासी में डूबे रहे, लेकिन धीरे-धीरे हमने सच को स्वीकार कर लिया। अब मैं यहाँ काम करती हूँ, दूसरों के साथ समय बिताती हूँ, और मन को समझाने की कोशिश करती हूँ कि यही मेरी जिंदगी का सच है।
मैं सोचती हूँ, ऐसा किसी के साथ न हो, लेकिन कौन जानता है कि किसका जीवन किस मोड़ पर बदल जाए। अब मुझे बस यही लगता है कि माता-पिता का सबसे बड़ा काम है बच्चों को पालकर बड़ा करना। पर उनसे कभी उम्मीदें मत रखो। उम्र के इस पड़ाव पर उम्मीदों से ज्यादा बड़ा कोई दर्द नहीं होता।

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