समाज में महिलाओं और पुरुषों के काम को लेकर भेदभाव
समाज में महिलाओं के प्रति जिम्मेदारियों को लेकर जो सोच है, वह अक्सर भेदभावपूर्ण होती है। एक महिला को यह सिखाया जाता है कि उसे घर का काम, बच्चों की देखभाल, और ऑफिस की जिम्मेदारियों को पूरी तरह से निभाना है। 20-22 साल की उम्र की लड़कियों से यह अपेक्षा की जाती है कि वे हर काम में निपुण हों और सभी चीजों को संभाल लें। लेकिन एक पुरुष को ऐसे किसी दबाव या अपेक्षाओं का सामना नहीं करना पड़ता। उसे घर के कामों में शामिल होना सिखाने या प्रेरित करने की बजाय उसे आराम करने और “थकान दूर करने” की सलाह दी जाती है।
एक महिला, चाहे वह ऑफिस में काम करती हो या न करती हो, उससे यह उम्मीद की जाती है कि वह घर और बच्चों की पूरी जिम्मेदारी लेगी। ऑफिस के काम के बाद भी घर और परिवार संभालना उसकी जिम्मेदारी मानी जाती है। यदि महिला कभी कहे कि वह थकी हुई है या उसे आराम चाहिए, तो उसे आलसी या कामचोर समझा जाता है। लोग उसकी थकान और भावनात्मक जरूरतों को अनदेखा कर देते हैं। वहीं, अगर पुरुष अपनी थकान का जिक्र करता है, तो उसे तुरंत सहानुभूति और आराम की सलाह दी जाती है।
यह भेदभाव महिलाओं के मानसिक और शारीरिक स्वास्थ्य पर नकारात्मक प्रभाव डालता है। महिलाओं को “घर का काम तो करना ही पड़ता है” कहकर उनकी मेहनत को सामान्य बना दिया जाता है, जबकि पुरुषों के काम को अक्सर सराहा जाता है। महिलाओं को हर समय खुद को साबित करने का दबाव रहता है, लेकिन उनकी भावनाओं और थकान को समझने वाला कोई नहीं होता।
समाज को इस सोच को बदलने की सख्त जरूरत है। घर और परिवार की जिम्मेदारी सिर्फ महिला की नहीं, बल्कि पुरुष की भी उतनी ही होती है। पुरुषों को भी घर के कामों में शामिल होना चाहिए और महिलाओं के प्रयासों की सराहना करनी चाहिए। महिला का आराम करना और उसकी भावनाओं को समझना परिवार और समाज के लिए बेहतर भविष्य की नींव रख सकता है। बराबरी का सम्मान और जिम्मेदारी का साझा करना ही एक सशक्त समाज की पहचान है।