डिलीवरी के बाद का समय एक मां के लिए शारीरिक, मानसिक और भावनात्मक बदलावों का दौर होता है। बच्चा जन्म देने के बाद मां के शरीर को ठीक होने में समय लगता है, साथ ही हार्मोनल बदलावों के कारण थकावट और मानसिक तनाव महसूस होना स्वाभाविक है। इस समय मां को अपने बच्चे की देखभाल, घर के कामकाज और अन्य जिम्मेदारियों के बीच संतुलन बनाना पड़ता है। हालांकि, जब कुछ काम अधूरे रह जाते हैं या पूरे नहीं हो पाते, तो लोग अक्सर कह देते हैं कि वह “आलसी” हो गई है। यह धारणा पूरी तरह अनुचित और असंवेदनशील है।
एक नवजात बच्चे की देखभाल में बहुत मेहनत और ध्यान देना पड़ता है। बच्चे को समय पर दूध पिलाना, उसका डायपर बदलना, रोने पर उसे शांत करना और रातभर जागते रहना—यह सब मां की दिनचर्या का हिस्सा बन जाता है। ऐसे में मां को खुद के लिए समय मिल पाना मुश्किल होता है। शारीरिक थकान के साथ-साथ भावनात्मक रूप से भी मां पर भारी दबाव होता है, क्योंकि वह अपने बच्चे की हर जरूरत को पूरा करने की कोशिश करती है। इन परिस्थितियों में “आलसी” कहना न केवल गलत है, बल्कि मां के संघर्ष को नजरअंदाज करना भी है।
परिवार और समाज का यह कर्तव्य है कि वे एक मां के इस कठिन समय को समझें और उसकी सहायता करें। घर के कामों में मदद करना, बच्चे की देखभाल में हाथ बंटाना और मां को कुछ समय के लिए आराम देने की कोशिश करना बेहद जरूरी है। उसे यह एहसास दिलाना कि वह अकेली नहीं है, उसके आत्मविश्वास को बढ़ा सकता है। इसके अलावा, उसे यह समझने की जरूरत है कि हर काम पूरा करना जरूरी नहीं है। एक मां का सबसे बड़ा योगदान उसके बच्चे की देखभाल और उसे सुरक्षित माहौल देना है।
मां को भी यह स्वीकार करना चाहिए कि इस समय खुद की देखभाल करना उसकी प्राथमिकता होनी चाहिए। परिवार से मदद मांगने में झिझक महसूस न करें और जरूरत पड़ने पर आराम करें। हर मां अपने आप में एक योद्धा होती है, जो अपने बच्चे और परिवार के लिए पूरी तरह समर्पित रहती है। हमें उसकी मेहनत और त्याग को पहचानना चाहिए और उसे यह महसूस कराने की जरूरत है कि वह कितनी महत्वपूर्ण है। मां का यह संघर्ष उसकी कमजोरी नहीं, बल्कि उसकी ताकत है, जो उसे एक मजबूत और प्रेरणादायक इंसान बनाती है।