अनीता और रवि की शादी 24 अप्रैल 2005 को हुई थी, जब वे दोनों पढ़ाई में व्यस्त थे। उनकी शादी सहमति से हुई थी, और दो साल बाद, अनीता की बैंक में नौकरी लगी और उनके जीवन में एक प्यारा बेटा, समीर, आया। शुरूआत में, जब अनीता को नौकरी और बच्चे की जिम्मेदारी संभालनी मुश्किल हो रही थी, रवि ने पूरे समर्थन के साथ घर और बच्चे की देखभाल की।
समय के साथ, रवि घरेलू पुरुष बन गए और अनीता की नौकरी और घर की जिम्मेदारियों में सहयोग देने लगे। लेकिन एक समस्या सामने आई। अनीता के परिवार, खासकर उसके भाई अमन, अक्सर घर के मामलों में दखल देने लगे। अनीता ने बिना किसी सवाल के उनकी मांगों को पूरा किया, लेकिन रवि को यह सब बर्दाश्त नहीं हुआ।
एक बार जब अनीता के पिता ने तीज व्रत के लिए महंगे कान के बूंदों की खरीदारी के लिए पेमेंट करने को कहा, तो अनीता ने बिना सोचे-समझे पैसे भेज दिए। रवि ने इस पर गुस्से में आकर कहा कि वह अपनी माँ की तरह अनीता की माँ का भी ख्याल रखती है, लेकिन उसकी माँ का ध्यान नहीं देती। रवि के शब्दों ने अनीता को बहुत आहत किया और उसने गुस्से में मायके जाकर रहना शुरू कर दिया।
अनीता और रवि के बीच संपर्क पूरी तरह टूट गया। अनीता मायके में रहकर बैंक जाती रही, और रवि ने दूसरी शादी कर ली। रवि की नई पत्नी और बेटी के साथ उसकी गृहस्थी खुशहाल थी। अनीता के माता-पिता और भाई अब स्वर्ग सिधार चुके थे, और उसका बेटा आर्यन अब रवि के साथ रहने लगा।
जब आर्यन ने अनीता को बताया कि वह अपने पिता के साथ रहना चाहता है, तो अनीता को यह जानकर गुस्सा आया कि उसका बेटा एक सौतेली माँ के साथ रहने लगा है। लेकिन आर्यन की मासूमियत भरी प्रतिक्रिया कि “सभी सौतेली माँ बुरी नहीं होतीं” ने अनीता को एक नई समझ दी। उसने महसूस किया कि पैसे और आत्म-संतोष की दुनिया में उसने रिश्तों की अहमियत को नजरअंदाज कर दिया था।
अब अनीता के पास सिर्फ यादें और पछतावा था। उसने अपने निर्णयों और रिश्तों के महत्व को समझा, लेकिन अब वह अकेली और खाली महसूस कर रही थी। रिश्तों की गिरहें खुल चुकी थीं, और वह अब केवल अपने फैसलों और खोए हुए रिश्तों के साथ एक खाली जीवन जी रही थी। इस अनुभव ने उसे यह सिखाया कि पैसे की अहमियत से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हैं वे रिश्ते और संवेदनाएँ जो जीवन को पूरा बनाते हैं।