एक संत, एक धनी व्यापारी, रामलाल के पास आए। रामलाल ने उनकी बड़ी सेवा की। उनकी सेवा से प्रसन्न होकर, संत ने कहा, “अगर आप चाहें तो मैं आपको भगवान से मिलवा सकता हूँ।”
रामलाल ने कहा, “महाराज! मैं भगवान से मिलना तो चाहता हूँ, पर अभी मेरा बेटा छोटा है। वह कुछ बड़ा हो जाए, तब मैं चलूँगा।”
बहुत समय बाद संत फिर आए और बोले, “अब तो आपका बेटा बड़ा हो गया है। अब चलें?”
रामलाल ने कहा, “महाराज! उसकी सगाई हो गई है। उसका विवाह हो जाए और घर में बहू आ जाए, तब मैं चल पड़ूँगा।”
तीन साल बाद संत फिर आए। बहू आँगन में घूम रही थी। संत बोले, “रामलाल जी! अब चलें?”
रामलाल ने कहा, “महाराज! मेरी बहू को बालक होने वाला है। मेरे मन में कामना रह जाएगी कि मैंने पोते का मुँह नहीं देखा। एक बार पोता हो जाए, तब चलेंगे।”
संत पुनः आए, तब तक रामलाल की मृत्यु हो चुकी थी। ध्यान लगाकर देखा तो वह रामलाल बैल बना सामान ढो रहा था।
संत बैल के कान में बोले, “अब तो आप बैल हो गए, अब भी भगवान से मिल लें।”
रामलाल ने कहा, “मैं इस दुकान का बहुत काम कर देता हूँ। अगर मैं न रहूँगा तो मेरा लड़का कोई और बैल रखेगा। वह खाएगा ज्यादा और काम कम करेगा। इसका नुकसान हो जाएगा।”
संत फिर आए, तब तक बैल भी मर चुका था। देखा कि रामलाल अब कुत्ता बनकर दरवाजे पर बैठा था। संत ने कुत्ते से कहा, “अब तो आप कुत्ता हो गए, अब तो भगवान से मिलने चलो।”
कुत्ते ने कहा, “महाराज! आप देखते नहीं कि मेरी बहू कितना सोना पहनती है। अगर कोई चोर आया तो मैं भौंक कर भगा दूँगा। मेरे बिना कौन इनकी रक्षा करेगा?”
संत चले गए। अगली बार कुत्ता भी मर गया था और रामलाल गंदे नाले पर मेंढक बने टर्र-टर्र कर रहा था।
संत को बड़ी दया आई। बोले, “रामलाल जी, अब तो आपकी दुर्गति हो गई। और कितना गिरोगे? अब भी चल पड़ो।”
मेंढक क्रोध से बोला, “अरे महाराज! मैं यहाँ बैठकर अपने नाती-पोतों को देखकर प्रसन्न हो जाता हूँ। और भी तो लोग हैं दुनिया में। आपको मैं ही मिला हूँ भगवान से मिलवाने के लिए? जाओ महाराज, किसी और को ले जाओ। मुझे माफ करो।”
संत तो कृपालु हैं, बार-बार प्रयास करते हैं। पर रामलाल की ही तरह, दुनियावाले भगवान से मिलने की बात तो बहुत करते हैं, पर मिलना नहीं चाहते।
इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि संसारिक मोह-माया में फंसकर हम भगवान से मिलने की सच्ची अभिलाषा को बार-बार टालते रहते हैं। जीवन के हर चरण में कोई न कोई बहाना बनाकर हम अपनी आध्यात्मिक यात्रा को टालते हैं। जब तक हम सच्चे मन से भगवान की ओर नहीं बढ़ेंगे, तब तक जीवन की वास्तविक शांति और आनंद नहीं पा सकेंगे।