दीदी, सारे कपड़े धुल गए और सुखा भी दिए! अनिता जो प्रतीक्षा के घर काम करती थी, विनम्रता से बोली।
ठीक है, तुम जाओ!” प्रतीक्षा फोन में व्यस्त, लापरवाही से बोली।
वो दीदी. आज पांच तारीख हो गई है, पैसे मिल जाते तो… मुझे मकान का किराया देना है, अनिता झिझकते हुए बोली।
तुम लोगों का यही है, दो दिन ऊपर क्या हो जाए, पैसे मांगने लगते हो! रुक अभी लाई, प्रतीक्षा गुस्से में बोली और अंदर चली गई। अनिता बेचारी खड़ी सोच रही थी कि हर महीने यही होता है। वो पैसे ना मांगे तो प्रतीक्षा खुद से कभी नहीं देती। गरीब के लिए ये 3–4 हजार रुपए भी बहुत बड़ा सहारा होता है।
दीदी, इसमें तो 500 रुपए कम हैं, अनिता ने हैरानी से कहा जब प्रतीक्षा ने पैसे लाकर दिए।
हाँ, तो तूने 5 छुट्टी भी तो की थी! उसके पैसे काटूँगी नहीं क्या? प्रतीक्षा तमतमाते हुए बोली।
दीदी, पर मैंने अगले दिन डबल कपड़े धोए थे, उस हिसाब से पूरे 30 दिन का काम किया है, तो पैसे पूरे मिलने चाहिए ना? अनिता ने चौंकते हुए कहा।
अरे, जब तूने छुट्टी की है तो पैसे तो कटेंगे ही! अब चुपचाप जा, समझी? प्रतीक्षा गुस्से में चिल्लाई।
दीदी, छोटा मुँह बड़ी बात मैं अपनी #मेहनत के पैसे मांग रही हूँ, भीख नहीं। आप लोग होटलों में कितना पैसा यूँ ही खर्च कर आते हो, पर गरीब की मेहनत का पैसा देते हुए #दर्द होता है! एक तो 3000 रुपए में 8 लोगों के कपड़े धुलवा रही हो, ऊपर से परदे, चादर, तौलिये, कम्बल सब अलग से। फिर भी पूरे पैसे नहीं देती! आपका 500 रुपए में महल खड़ा हो जाता है, कर लीजिए। और हाँ, कल से दूसरी बाई ढूँढ लीजिए, क्योंकि जहाँ #सम्मान नहीं, वहाँ काम करने का कोई फायदा नहीं।”
यह कहकर अनिता वहाँ से निकल गई।
दोस्तो क्या अनिता ने सही किया?