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Searching for the truth: The invisible weave of the relationship between mother-in-law and daughter-in-law
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सच्चाई की तलाश: सास और बहू के रिश्ते की अदृश्य बुनाई

चालीस पार के अमित ने अंततः अपने ऑफिस की सहकर्मी, नेहा से शादी कर ली। नेहा, एक अनाथ लड़की थी, जिसने अपने चाचा-चाची के घर पर आश्रय पाया था। दूसरी ओर, अमित का परिवार छोटा था; पिता का देहांत बचपन में ही हो गया था और अब केवल अमित और उसकी बीमार माँ, किरण जी ही थे।

शादी के बाद, नेहा ने घर के कामों को बड़ी कुशलता और सहजता से संभाल लिया। वह अपनी सासू मां का ध्यान रखती, उनके दवाओं से लेकर भोजन तक, सब कुछ समय पर करती थी। किरण जी भी अपनी नई बहू से खुश थीं और दोनों का रिश्ता समय के साथ मधुर होता चला गया। लेकिन शादी के एक साल बाद, किरण जी ने एक बदलाव नोटिस किया – नेहा अब उनके पास बैठकर खाना नहीं खाती थी।

पहले, दोनों सास-बहू एक साथ खाना खाती थीं, बातें करती थीं, और रसोई के कामों में भी एक-दूसरे की मदद करती थीं। लेकिन अब किरण जी की तबियत खराब रहने लगी थी, और वह रसोई के कामों में मदद नहीं कर पा रही थीं। नेहा अकेले सब कुछ संभाल रही थी, लेकिन एक बात किरण जी के मन को कचोट रही थी – उनकी बहू अब उनसे दूर क्यों बैठकर खाती है?

एक शाम, नेहा ने किरण जी को चाय और बिस्किट लाकर दिए। खुद भी चाय का कप लेकर वह कुछ दूरी पर बैठ गई और एक लाल रंग के डब्बे से कुछ खाने लगी। किरण जी ने दूर से देखा और सोचा, “पता नहीं, यह बहू मुझे बिस्किट देकर खुद क्या खा रही है।”

किरण जी के मन में तरह-तरह के ख्याल आने लगे। “जरूर कुछ अच्छा ही खा रही होगी, तभी तो मुझसे दूर बैठती है,” उन्होंने सोचा। उनके मन ने कहा, “शायद अब मेरी बहू को मुझसे दूरी अच्छी लगने लगी है।”

रात को किरण जी को नींद नहीं आई। उनका मन बार-बार उस लाल डब्बे की तरफ खिंचता रहा। “आखिर क्या हो सकता है उस डब्बे में?” वे सोचने लगीं। आखिरकार, उनकी बेचैनी इतनी बढ़ गई कि वे धीरे-धीरे रसोई में गईं। कांपते हाथों से उन्होंने उस लाल डब्बे को उतारने की कोशिश की, लेकिन डब्बा उनके हाथ से छूटकर नीचे गिर गया और जोर से आवाज आई।

धड़ाम! नेहा और अमित आवाज सुनकर दौड़े-दौड़े रसोई में पहुंचे। “क्या हुआ, माँजी? कुछ चाहिए था क्या?” नेहा ने पूछा।

किरण जी ने सकपकाते हुए जवाब दिया, “वो… दवाई से मुंह कड़वा हो गया था, इसलिए शक्कर का डब्बा ढूंढ रही थी।”

नेहा ने जल्दी से सफाई करते हुए कहा, “माँजी, मुझे बोल दिया होता, मैं निकाल देती। खैर, कल से मैं आपके कमरे में ही मिश्री रख दूंगी।”

जब किरण जी ने ध्यान से बिखरे टुकड़े देखे, तो पाया कि वे बस मीठे-नमकीन बिस्किट के टूटे हुए टुकड़े थे। नेहा ने उन टुकड़ों को जल्दी-जल्दी समेट लिया, लेकिन किरण जी के मन में एक गहरी चोट लगी। वे सोचने लगीं, “कितनी गलतफहमी पाल रखी थी मैंने। मेरी बहू तो मुझे साबुत बिस्किट देती है और खुद टूटे हुए टुकड़े खाती है।”

दूसरे दिन, शाम को नेहा ने किरण जी को चाय और बिस्किट लाकर दिए। इस बार, किरण जी ने अपनी भावनाओं को रोक नहीं पाईं और कहा, “बहू, मेरे दांतो से बिस्किट जल्दी नहीं टूटते, तो तुम मुझे वो टुकड़े दे दिया करो।”

नेहा ने मुस्कुराते हुए जवाब दिया, “नहीं, माँजी। वो तो जब भी नया पैकेट खोलती हूँ, कुछ टुकड़े निकल ही जाते हैं। बस उन्हें अलग डिब्बे में रख देती हूँ। आप देखती हैं, घर में कोई भी आ सकता है, ऐसे में मैं खुद अंदर की तरफ बैठकर खा लेती हूँ, ताकि कोई देखे नहीं।”

नेहा की बातें सुनकर किरण जी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने महसूस किया कि उन्होंने अपनी सोच पर कितनी बड़ी गलतफहमी पाल रखी थी। उन्होंने अपने भीतर की छोटी सोच को अपने आँसूओं के साथ बहने दिया और समझा कि वे दुनिया की सबसे भाग्यशाली सास हैं, जिन्हें नेहा जैसी बहू मिली है।

इस कहानी ने सिखाया कि रिश्तों में छोटी-छोटी गलतफहमियों का बड़ा असर हो सकता है, लेकिन सच्चे प्यार और समझदारी से हर गलतफहमी को दूर किया जा सकता है। अब, किरण जी और नेहा के बीच का रिश्ता और भी मजबूत हो गया था, जो केवल विश्वास और प्यार के धागों से बुना हुआ था।

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