अलीगढ़ की धरती सदैव से साहित्य और संस्कृति की उर्वर भूमि रही है। किंतु इस बार जो उपलब्धि दर्ज हुई है, उसने अलीगढ़ को विश्व पटल पर एक नई पहचान दी है। पिता-पुत्र की विलक्षण जोड़ी—विख्यात वरिष्ठ महाकवि अमर सिंह राही और भारत विभूषण गीतकार डॉ. अवनीश राही—ने जिस भव्य महाकाव्य “भीम चरित मानस” की रचना की, उसका प्रतिष्ठित गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स में शामिल होना केवल व्यक्तिगत सफलता नहीं, बल्कि संपूर्ण भारतीय साहित्य के लिए एक ऐतिहासिक क्षण है।
इस विराट कृति का महत्व इसलिए भी असाधारण है कि इसमें 7 कांड, 75 अध्याय, 36 लोकविधाएँ व 206 पात्र हैं। इसमें भारत रत्न डॉ. भीमराव अंबेडकर के जन्म से लेकर जीवन-संघर्ष और महापरिनिर्वाण तक का विस्तृत आख्यान इस महाकाव्य में बुना गया है। विशेष उल्लेखनीय यह है कि इसमें सवैया, लावनी, चौबोला, बहर-तब्बील, भजन, रागिनी, गीत, आल्हा, दोहा और संवाद जैसी लुप्त होती कर्णप्रिय लोकविधाओं को पुनर्जीवित किया गया है। साहित्य इतिहास में आज तक किसी महाकाव्य ने इतनी विविध और लोकसुलभ शैलियों को एक साथ संजोने का साहस नहीं किया।
महाकाव्य की लेखन-यात्रा भी प्रतीकात्मक है। इसे 14 अक्तूबर 1994 को प्रारम्भ किया गया—उसी दिन जब बाबा साहब ने बौद्ध धर्म ग्रहण किया था। दो वर्षों की दिन-रात की तपस्या के बाद जब जून 1996 में यह पूर्ण हुआ तो यह केवल एक पुस्तक नहीं रही, बल्कि एक सांस्कृतिक आंदोलन का रूप ले चुकी थी। और जब इसका विमोचन तत्कालीन भारत के उपराष्ट्रपति महामहिम डॉ. हामिद अंसारी के करकमलों से उनके आधिकारिक आवास पर सम्पन्न हुआ, तो यह अवसर भारतीय साहित्य के स्वर्णिम पलों में दर्ज हो गया।
नोएडा में आयोजित सम्मान समारोह में गोल्डन बुक ऑफ़ वर्ल्ड रिकॉर्ड्स (एशिया) के प्रमुख डा.मनीष बिश्नोई द्वारा प्रदत्त सम्मान पत्र, प्रमाण पत्र, प्रतीक चिन्ह और शॉल ने इस उपलब्धि को औपचारिक मान्यता दी। लेकिन वस्तुतः यह सम्मान केवल पिता-पुत्र की जोड़ी का नहीं, बल्कि उन सभी साहित्य साधकों का है जो परंपरा और आधुनिकता के सेतु का निर्माण करते हैं।
डॉ. अम्बेडकर का जीवन स्वयं संघर्ष और पुनर्जागरण का पर्याय है। ऐसे में “भीम चरित मानस” का सृजन केवल साहित्यिक कार्य नहीं, बल्कि सामाजिक चेतना का विस्तार है। यह स्मरण कराना भी समीचीन होगा कि भारत विभूषण गीतकार डॉ. अवनीश राही, जो अलीगढ़ के हीरालाल बारहसैनी इंटर कॉलेज में व्याख्याता पद पर आसीन हैं, हाल ही में विद्या वाचस्पति डॉक्टरेट की मानद उपाधि से भी सम्मानित किए गए हैं। उनके पिता महाकवि अमर सिंह राही के साथ उनका यह साहित्यिक संगम परंपरा और आधुनिकता का अद्भुत मेल है।
आज जब लोकविधाएँ धीरे-धीरे लुप्त हो रही हैं, तब “भीम चरित मानस” का उदय उन विधाओं के पुनर्जन्म के रूप में हुआ है। यह महाकाव्य केवल एक साहित्यिक उपलब्धि नहीं, बल्कि सांस्कृतिक पुनर्जागरण की दस्तक है। आने वाली पीढ़ियाँ इसे न केवल पढ़ेंगी, बल्कि गर्व से कहेंगी कि अलीगढ़ की धरती से निकली एक जोड़ी ने डॉ. भीमराव अंबेडकर के जीवन-संघर्ष को ऐसे जीवंत रूप में गढ़ा, जिसे पूरी दुनिया ने सिर झुकाकर स्वीकार किया।