एक सास अपनी बड़ी बहु को ताना मारते हुए कहती हैं यह देख बड़ी बहू, इसे कहते हैं देना। लेकिन तुम्हारे घर वाले क्या जाने बेटी के ससुराल वालों से कैसे व्यवहार किया जाता है। बस कुछ भी सस्ता-मौला पकड़ा कर खाना पूर्ति कर देते हैं। कभी लाई भी है अपने माइके से मेरे लिए इतनी महंगी साड़ी? चल, मेरे लिए छोड़, खुद के लिए भी कभी नहीं लाई होगी। चल, छोड़, अब तुझसे क्या कहना। यह तो हमारे भाग्य अच्छे हैं कि कम से कम मेरी छोटी बहू तो ऊंचे खानदान से आई है। अब जाकर लग रहा है कि सास बनी हूं मैं। यह साड़ी अपने भतीजे की शादी में पहनूंगी।
अपनी नई-नई छोटी बहू के मायके से अपने लिए लाई हुई महंगी सिल्क की साड़ी को देखकर सुनंदा जी छोटी बहू पर वारी जा रही थीं। सुनंदा जी के दो बेटे थे; बड़ा दुकानदारी करता था और छोटा पढ़-लिखकर अफसर बन चुका था। बड़ी बहु कंचन एक मध्यवर्गीय परिवार से थी। ज्यादा दान-दहेज लेकर तो नहीं आई थी, लेकिन कार्यकुशल बहुत थी। सबका ख्याल भी रखती थी। चाहे सास कितने भी ताने मार लें, फिर भी कभी पलटकर जवाब नहीं देती थी।
सुनंदा जी वैसे तो बड़ी बहू की सेवा से खुश थीं, लेकिन जहां लेन-देन की बात आती, तो अपनी भड़ास निकालने से नहीं चूकती थीं। जब छोटे बेटे की शादी एक ऊंचे घराने की लड़की काव्या से हुई और उसने दहेज से घर भर दिया, तो यह भड़ास कुछ ज्यादा ही भड़क उठी थी। जाहिर सी बात है कि अफसर बेटे के लिए भला गरीब घर की लड़की कौन लाना चाहेगा? सुनंदा जी की नजरों में अब छोटी बहू का रुतबा बड़ी बहू की इतने वर्षों की सेवा से कहीं ऊपर हो गया था। कंचन जब मायके से वापस आती, तो दो-चार साड़ियां और थोड़ी मिठाईयां ही लाती थी। वह भी अपनी सास के आगे रखकर कहती, “मां जी, आपको कोई साड़ी पसंद है तो आप ले लीजिए।” सुनंदा जी का नाक-भव सिकुड़ते हुए सबसे अच्छी साड़ी उठा लेती थीं।
आज छोटी बहू की लाई साड़ी देखकर सुनंदा जी की आंखें फैल गई थीं। इतनी महंगी साड़ी तो उन्होंने शायद ही कभी पहनी थी। काव्या भी अपने सास और जेठानी की बातें सुन रही थी और खुद पर इठला रही थी। जेठानी कंचन का उतरा चेहरा देखकर उसे बहुत आनंद आ रहा था। लगे हाथ जलती आग में थोड़ा सा घी का छिड़काव करते हुए बोल पड़ी, “मम्मी जी, हमारे घर में तो कोई भी ऐसे-वैसे कपड़े नहीं पहनता। मेरी भी सारी साड़ियां और ड्रेस ब्रांडेड ही दिलाए हैं मेरी मम्मी ने। और हां, वह जो आपके लिए शादी में जो रिंग दी है ना वह भी डायमंड की है। जरा संभाल कर रखना।”
कंचन को सास की बातें सुनने की तो आदत हो गई थी, लेकिन कल की आई देवरानी के ताने उसे आहत करने लगे। तो वह वहां से उठकर काम में लग गई। अब तो यह रोज की बात हो गई थी। कंचन पहले की तरह ही काम में लगी रहती और सुनंदा जी काव्या के आगे-पीछे घूमती रहती थीं। काव्या कभी घूमने, तो कभी शॉपिंग पर निकल जाती। घर के काम में कभी हाथ भी लगाती, तो सिर्फ उस समय जब उसका पति घर पर होता।
कुछ दिनों बाद सुनंदा जी की भतीजी की शादी थी, तो उसमें शामिल होने चली गईं। बड़े चाव से उन्होंने छोटी बहू की लाई वह महंगी साड़ी पहनी। सब तारीफ कर रहे थे और सुनंदा जी गर्व से बता रही थीं कि छोटी बहू के मायके से आई है। शादी में खाना खाते वक्त सुनंदा जी के हाथों से सब्जी की तरी साड़ी पर गिर गई। उन्हें बुरा तो बहुत लगा, लेकिन कहीं दाग ना बैठ जाए, इसलिए उन्होंने जल्दी से साड़ी बदलकर वह साड़ी धो डाली। लेकिन अगले ही पल उनका चेहरा उतर गया। दाग तो निकल गया, लेकिन साड़ी सिकुड़ कर आधी रह गई।
घर वापस आकर उन्होंने जब वह साड़ी छोटी बहू काव्या को दिखाई, तो वह नखरे करते हुए बोली, “मम्मी जी, आप तो गवार की गवार रहोगी। आपको इतना भी नहीं पता कि इतनी महंगी साड़ी को घर पर नहीं धोते। इन्हें ड्राई क्लीन करवाना पड़ता है। लेकिन आपको पता भी कैसे होगा, कभी इतनी महंगी साड़ी पहनी हो तब ना? आप तो भाभी की लाई साड़ी पहने लायक ही हो।” सुनंदा जी की आंखें छलक उठीं। बड़ी बहू ने इतने सालों में भी कभी पलटकर जवाब नहीं दिया था, वहीं काव्या सिर्फ एक साड़ी के लिए उन्हें इतने जलील कर रही थी।
बड़ी बहू कंचन से सास का यह अपमान सहन नहीं हो रहा था। वह बोल पड़ी, “बस कर छोटी! सिर्फ एक साड़ी ही खराब हुई है जो तुमने उन्हें दी थी। इसका मतलब यह नहीं कि वह तुम्हारी हुई। जरूरत तो नहीं कि सबको सही तरह के कपड़ों के बारे में जानकारी हो। तुम्हारे घर वालों ने कपड़े भले ही महंगे दिए हों, लेकिन शायद संस्कार देने में कंजूसी कर दी। मां जी के बेटे भी आज इतने सक्षम हैं कि मां को इससे महंगी साड़ी दिला सकते हैं।” कंचन की बात सुनकर सुनंदा जी का सीना गर्व से चौड़ा हो गया। आज उन्हें बड़ी बहू के संस्कार छोटी बहू की कीमती उपहारों से ज्यादा महंगे लग रहे थे!