मोहन ने बचपन से ही अपने परिवार वालों से सुना था कि उसकी सगी माँ को गंभीर बीमारी हो गई थी जब वह केवल तीन साल का था। डॉक्टरों ने साफ कह दिया था कि उनकी माँ का ठीक होना मुश्किल है, बावजूद इसके उसके पापा ने इलाज और देखभाल में कोई कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सब कुछ खुद संभाला, किसी और पर भरोसा नहीं किया, लेकिन फिर भी अपनी पत्नी को नहीं बचा सके। मोहन के तीसरे जन्मदिन पर उसकी माँ ने अपनी सहेली को बुलाया और पापा के हाथ में उसका हाथ देकर सदा के लिए गहरी नींद में सो गईं।
इसके बाद, कई महीनों तक मोहन के पापा चुपचाप रहे, जैसे वे केवल बच्चों के लिए ही जी रहे थे। पापा की इस हालत को देखकर दादी ने उनकी माँ की सहेली से उनकी शादी करवा दी। मोहन को अपनी सगी माँ की शक्ल भी याद नहीं थी, लेकिन उसकी नई माँ ने उसे इतना प्यार दिया कि वह उनके बिना एक पल भी नहीं रह पाता था। बाहर से देखने पर लोग यह अंदाजा भी नहीं लगा सकते थे कि वह मोहन की सौतेली माँ हैं।
परिवार के लोग अक्सर नीरा से कहते थे, “तुम्हें एक बच्चा अपनी कोख से भी पैदा करना चाहिए, नहीं तो बुढ़ापे में कौन पूछेगा?” लेकिन नीरा जवाब देतीं, “दुनिया में सुखी जीवन के लिए एक बेटा और एक बेटी होना चाहिए। भगवान ने मुझे दोनों पहले ही दे दिए हैं, फिर बिना वजह परिवार बढ़ाने का क्या फायदा?”
मोहन अब 21 साल का हो चुका था। एक दिन, उसके पापा की ब्रेन हेमरेज से मृत्यु हो गई। उनके अंतिम संस्कार के लिए गाँव के लोग इकट्ठे हुए। परिवार के लोग कहने लगे, “अगर तुम्हारी सौतेली माँ भाग गई तो तुम भाई-बहन क्या करोगे?” जो लोग पहले कभी दुख-सुख में पूछते भी नहीं थे, वह अब इतने हितैषी कैसे हो गए?
मोहन को यह भी समस्या थी कि बाहर के लोग उसे गाँव की जमीन के बारे में गलत बातें सिखाने की कोशिश कर रहे थे या उसे उसकी माँ से नाता तोड़ने के लिए मजबूर कर रहे थे। पगड़ी रस्म के समय, मोहन ने सबके सामने कहा, “जिस औरत को तुम सब मेरी सौतेली माँ बता रहे हो, मैं वास्तव में उन्हें अपनी माँ नहीं मानता।” यह सुनकर वहां उपस्थित सभी के चेहरे खिल उठे। फिर मोहन ने कहा, “मैं उन्हें अपना सब कुछ मानता हूं, और आज से मैं उन्हें अपना पापा भी मानता हूं। आज के बाद, अगर मेरे सामने मेरी माँ की बुराई की गई, तो मेरे साथ संबंध खत्म समझा जाए।” यह सुनकर 500 से अधिक लोगों के बीच उसकी माँ ने उसे गले से लगाया और उसके कंधे पर प्यार से थपथपाया।
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