एक गांव में एक गरीब धनीराम सेठ रहता था। शायद यह सुनकर आपको अजीब लगे, लेकिन हां, धनीराम सेठ और गरीब एक साथ इस्तेमाल किए जा सकते हैं। धनीराम सेठ एक समय बहुत अमीर हुआ करते थे, लेकिन समय की मार ने उनकी संपत्ति छीन ली और वे गरीब हो गए। लोग उन्हें अब ‘गरीब धनीराम सेठ’ के नाम से ही जानने लगे थे।
लेकिन कहते हैं, “अच्छे कर्मों का फल देर-सवेर ही सही, मिलता जरूर है।” ऐसा ही कुछ इस गरीब धनीराम सेठ के साथ होने वाला था। एक दिन गांव में राजा के दरबार की ओर से ऐलान किया गया कि जिन्होंने भी अच्छे काम किए हैं, वे अपनी सूची राजा के सामने पेश कर सकते हैं और इनाम ले सकते हैं।
धनीराम सेठ की पत्नी ने यह ऐलान सुना और उसे खुशी हुई, क्योंकि वह जानती थी कि सेठ ने अपने अच्छे दिनों में बहुत सारे पुण्य के काम किए थे। उसने सेठ को यह बात बताई और सेठ ने भी सोचा कि हमें निश्चित रूप से बड़ा इनाम मिलना चाहिए।
अगले दिन सेठ चार रोटियां बांधकर राजा के महल की ओर चल पड़ा। महल काफी दूर था और रास्ता लंबा था। आधे रास्ते में सेठ थक गया और एक पेड़ की छांव में आराम करने लगा। अपने साथ लाई रोटियों को खाने का मन बना ही रहा था कि एक गाय और उसके दो बछड़े वहां आ पहुंचे। गाय और बछड़े भूखे लग रहे थे और उनके हाव-भाव से सेठ को समझ में आ गया कि वे खाना मांग रहे हैं।
सेठ की परिस्थिति भले ही अब खराब हो गई थी, लेकिन उसका स्वभाव बिल्कुल नहीं बदला था। उसने अपने अच्छे दिनों की तरह गायों को खाना देना शुरू किया। पहले उसने दो रोटियां गाय को दीं और फिर देखा कि गाय और भी भूखी है। इसलिए उसने बाकी की दो रोटियां भी गाय को दे दीं और खुद बिना खाए सिर्फ पानी पीकर अपने रास्ते पर चल पड़ा।
राजा के दरबार में जब सेठ पहुंचा, तो राजा ने उसे अपने अच्छे काम गिनवाने के लिए कहा। सेठ ने राजा को प्रणाम किया और अपने कर्मों की सूची बताना शुरू की—भूखों को खाना खिलाना, मंदिरों में दान देना, निराश्रित लोगों को आश्रय देना, तीर्थ यात्रा करना, साधु संतों की सेवा करना, आदि।
राजा ने थोड़ी देर सोचा और कहा, “अगर तुम्हारे पास और भी अच्छे कर्म हैं, तो उन्हें बताओ! अब तक तुमने जो बताया है, उन्हें मैं अच्छे कर्म की श्रेणी में नहीं मानता।”
सेठ चकित हो गया और राजा से विनती की, “महाराज, अगर मेरे बताए ये कर्म अच्छे नहीं लगते, तो मेरा बाकी का कर्म गिनवाना बेकार है। कृपया मुझे जाने दीजिए।”
जब सेठ दरबार से बाहर जाने लगा, तो एक दरबारी ने राजा के पास जाकर कुछ कहा। राजा ने सेठ को वापस बुलाया और पूछा, “तुमने आज के दिन जो अच्छा काम किया, उसके बारे में बताओ।”
सेठ ने कहा, “महाराज, आज मैंने कोई अच्छा काम नहीं किया।”
दरबारी ने राजा को बताया कि सेठ ने कैसे अपने खाने की रोटियां गाय और बछड़ों को दे दी थीं और खुद केवल पानी पीकर चले आए थे। राजा ने सेठ से कहा, “मेरे गुरुजी के अनुसार, सच्चे पुण्य कर्म वही हैं जो निस्वार्थ भाव से किए जाएं, बिना किसी दिखावे के और काम को करने के बाद उसे भुला दिया जाए। यही कारण है कि आज तुम्हारा यह कर्म तुम्हारे सभी अच्छे कर्मों में सबसे उत्तम है।”
राजा ने सेठ को बहुत बड़ा इनाम दिया, जिसे पाकर सेठ की आर्थिक स्थिति फिर से अच्छी हो गई। सेठ और उसकी पत्नी ने अपना जीवन निस्वार्थ भाव से अच्छे कर्मों में व्यतीत करने का निर्णय लिया।
इस कहानी से हमें यह सीखने को मिलता है कि सच्चे अच्छे कर्म वही हैं जो दिल से किए जाएं, निस्वार्थ भाव से किए जाएं और जिनकी गिनती हमें खुद नहीं करनी पड़ती। आजकल लोग दिखावे के लिए दान और मदद करते हैं, लेकिन सच्चे पुण्य कर्म उसी समय किए जाते हैं जब हम उन्हें दिखावे के बिना और पूरी ईमानदारी से करते हैं।
धन्यवाद! आशा है कि इस कहानी से आपको सच्चे पुण्य और दान के महत्व को समझने में मदद मिली होगी। इसे अपने दोस्तों और परिवार के साथ शेयर करें ताकि वे भी सच्चे अच्छे कर्मों की महत्वता को समझ सकें।
