स्वतंत्रता के बाद देश में हरित क्रांति के तहत रासायनिक कृषि अपनाई गई थी, जिससे खाद्यान्न उत्पादन में तो बढ़ोतरी हुई, लेकिन इसके साथ-साथ जल, भूमि और पर्यावरण पर भी बुरा प्रभाव पड़ा। रासायनिक उर्वरकों और कीटनाशकों के अत्यधिक उपयोग से मिट्टी की उर्वरता में गिरावट आई और कृषि लागत भी बढ़ने लगी, जिससे किसानों की स्थिति खराब हो गई।
लेकिन अब प्राकृतिक खेती को अपनाने के बाद किसान बेहतर परिणाम प्राप्त कर रहे हैं। प्राकृतिक खेती प्रणाली में प्रति एकड़ 895 किलोग्राम नाइट्रोजन की उपलब्धता हो रही है, जो फसलों के लिए पर्याप्त साबित हो रही है। यह नाइट्रोजन मुख्य रूप से सहजीवी फसलों और केंचुओं द्वारा स्थिर की जाती है। खासतौर पर, देशी केंचुए मिट्टी के भौतिक गुणों में सुधार करते हैं और जैविक खाद से उनकी संख्या में भी वृद्धि होती है।
सूरत जिले में किसान अब कम लागत वाली गौ-आधारित जैविक खेती को अपना रहे हैं, जिसमें गाय के गोबर और गोमूत्र से बनी खाद का उपयोग किया जाता है। इस खाद से मिट्टी में जैविक कार्बन की मात्रा बढ़ती है और फसलों की उत्पादन क्षमता में सुधार होता है। साथ ही, किसानों को रासायनिक उर्वरक और कीटनाशक खरीदने की आवश्यकता नहीं पड़ती, जिससे उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो रहा है।
किसान अब प्राकृतिक खेती को अपनाकर न केवल अपनी आय में बढ़ोतरी कर रहे हैं, बल्कि पर्यावरण को भी संरक्षित रख रहे हैं। इस दिशा में राज्य सरकार और प्रगतिशील किसानों के प्रयासों से प्राकृतिक कृषि के लाभों को बढ़ावा दिया जा रहा है, जिससे आने वाले वर्षों में राज्य को 100 प्रतिशत प्राकृतिक खेती की ओर ले जाने का लक्ष्य रखा गया है।
निष्कर्ष:
प्राकृतिक कृषि का मार्गदर्शन और प्रशिक्षण अब किसानों के लिए लाभकारी साबित हो रहा है, और इसके बढ़ते प्रभाव से कृषि क्षेत्र में एक नई क्रांति देखने को मिल रही है। सरकार और किसानों के संयुक्त प्रयासों से, प्राकृतिक खेती की दिशा में सूरत जिले को एक मॉडल के रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है।